जाग उठा जब भी शुऊर-ए-ज़ात बिस्तर छोड़ के ख़ुद अलग हो जाएँगे क़तरे समुंदर छोड़ के टूटने तक जिस्म से बे-रब्त साँसों का तिलिस्म मेरी तन्हाई कहाँ जाए मिरा घर छोड़ के एक ही मरकज़ पे लौट आते हैं सारे रास्ते हम किधर जाएँ तिरा कूचा तिरा दर छोड़ के मौसमों की गर्द भी जिन को न धुँदला कर सकी अक्स वो दिल पर गया है आईना-गर छोड़ के पै-ब-पै हर एक चाल उल्टी ही वो चलता रहा शह कही हम ने उसे फिर भी कई घर छोड़ के इश्क़ को तहरीक बख़्शे फिर अदा-ए-सादगी फिर कोई मेहरुन्निसा देखे कबूतर छोड़ के हर तरफ़ ऐ 'मौज' आँगन में दर-ओ-दीवार से धूप उतर आई तो हम उट्ठे हैं बिस्तर छोड़ के