जागे हो रात महफ़िल-ए-अग़्यार में ज़रूर आँखों में अब वो कुफ़्र की ज़ुल्मत नहीं रही जब कर दिया ख़िज़ाँ ने वो रंगीं चमन तबाह वो हुस्न अब कहाँ वो मलाहत नहीं रही ज़ाहिद में है न ज़ोहद न रिंदों में मय-कशी फूलों में हुस्न ग़ुंचों में निकहत नहीं रही हाँ ऐ 'हयात' हम ने ज़माने के दुख सहे फिर भी हमें किसी से शिकायत नहीं रही