जागीर अगर बहुत न मिली हम कूँ ग़म नहीं हासिल हमारे मुल्क-ए-क़नाअ'त का कम नहीं इस साथ मह-रुख़ाँ को नहीं कुछ बराबरी यूसुफ़ से ये निगार-ए-परी-ज़ाद कम नहीं ख़ुश-सूरताँ से क्या करूँ मैं आश्नाई अब मुझ को तो इन दिनों में मयस्सर दिरम नहीं दिल बाँधते नहीं हैं हमारे मिलाप पर मह-तलअताँ में मुझ को तो अब कुछ भरम नहीं मिलते हो सब के जा के घर और हम सूँ हो कनार कुछ हम तो उन चकोरों से ऐ माह कम नहीं ज़ाहिर के दोस्त आते नहीं काम वक़्त पर तलवार काट क्या करे जिस को जो दम नहीं 'फ़ाएज़' को भाया मिस्रा-ए-'यकरंग' ऐ सजन गर तुम मिलोगे उन सेती देखोगे हम नहीं