जहाँ ग़म है न अब कोई ख़ुशी है मोहब्बत उस जगह पर आ गई है जिसे देखो उसे अपनी पड़ी है ज़माने की बहुत हालत गिरी है मुसलसल फ़िक्र-ए-दुनिया फ़िक्र-ए-उक़्बा अब ऐसी ज़िंदगी क्या ज़िंदगी है मैं अपने दिल की बातें कह रहा हूँ ज़माने के लिए ये शाइ'री है सकूँ मिलता है उन की याद कर के इलाज-ए-तिश्नगी ख़ुद तिश्नगी है दिलों में है अंधेरा अहद-ए-नौ का ब-ज़ाहिर रौशनी ही रौशनी है बड़ी मुश्किल है मीर-ए-कारवाँ की बहुत फैली हुई बे-रह-रवी है नई तहज़ीब में सब कुछ है लेकिन फ़क़त इंसानियत ही की कमी है ये लगता है तरक़्क़ी कर रहे हैं गिरावट रोज़ बढ़ती जा रही है कहीं पत्थर न फीके ये ज़माना तेरी फ़िक्र-ओ-अमल शीशागरी है उठा है एक कोने में धुआँ सा कहीं शायद कोई बिजली गिरी है करूँ ऐ 'मौज' क्या उम्मीद-ए-साहिल कि अब तूफ़ाँ में कश्ती घिरी है