जहाँ खिंच रहे हैं किसी के असर में न जाने है कितना फ़ुसूँ उस नज़र में तिरी जुस्तुजू ही मिरी ज़िंदगी है मिरे नक़्श-ए-पा में हर इक रहगुज़र में मिरी राह मंज़िल ने क्यूँ रोक ली है अभी लुत्फ़ आने लगा था सफ़र में ज़मीं बन गई आसमाँ बन गए हैं ख़ुदा जाने क्या ख़ूबियाँ हैं बशर में उसे दहर-ए-फ़ानी से फिर क्या तअ'ल्लुक़ मुक़द्दर जिसे लाए तेरी नज़र में रहा दीन का और न दुनिया का आख़िर उलझता रहा जो अगर में मगर में वो ज़ाहिर से ही देख लेता है बातिन ये ख़ूबी फ़क़त 'शौक़' है दीदा-वर में