जहाँ लम्हा-ए-शाम बिखेर दिया By Ghazal << कभी कपड़े बदलता है कभी लह... लम्स-ए-तिश्ना-लबी से गुज़... >> जहाँ लम्हा-ए-शाम बिखेर दिया वहीं इक पैग़ाम बिखेर दिया ख़ुद उस के क़दमों में अपना सब पुख़्ता-ओ-ख़ाम बिखेर दिया चालाक परिंदा था वो भी हम ने भी दाम बिखेर दिया जितनी तकलीफ़ इकट्ठा की उतना आराम बिखेर दिया दरवाज़ा खोला जल्दी से और सारा काम बिखेर दिया Share on: