जहाँ से आए थे शायद वहीं चले गए हैं वो साहिबान-ए-बशारत कहीं चले गए हैं ज़मीं पे रेंगते रहने को हम जो हैं मौजूद जो अहल-ए-शर्म थे ज़ेर-ए-ज़मीं चले गए हैं बहिश्त है कि नहीं है ये तू ही जानता है तिरे फ़क़ीर ब-नाम-ए-यक़ीं चले गए हैं दिखाई देंगे कभी वक़्त के झरोकों से वो लोग अब भी यहीं हैं हमीं चले गए हैं वही हुआ है जो होता है सोने वालों से ऐ मेरे दिल तिरे पहलू-नशीं चले गए हैं हमारी आँख 'शनावर' हुई है क्या नमनाक सुख़न-सराओं से ज़ेहरा-जबीं चले गए हैं