ज़ेहन और दिल में जो रहती है चुभन खुल जाए आए काग़ज़ पे तो सलमा-ए-सुख़न खुल जाए क़तरा-ए-दीदा-ए-नमनाक मसीहाई करे फ़िक्र के बंद दरीचों की शिकन खुल जाए मैं उसे रोज़ मनाता हूँ सहर होने तक मेरे अल्लाह किसी शब तो ये दुल्हन खुल जाए एक ख़ुश्बू सी है जो रूह की गहराई में लफ़्ज़ मिल जाएँ तो मा'नी का चमन खुल जाए इस तरह जागे किसी रोज़ ग़ज़ल का जादू जैसे मस्ती में पिया से कोई जोगन खुल जाए नीम-शब इज्ज़-ओ-समाजत से करूँ दस्त दराज़ लफ़्ज़ धोने के लिए आँखों में सावन खुल जाए सर-कशी और तजावुज़ से बचाना यारब मेरे एहसास में गर यास का फन खुल जाए