जहालत का मंज़र जो राहों में था वही बेश-ओ-कम दर्स-गाहों में था जो ख़ंजर-ब-कफ़ क़त्ल-गाहों में था वही वक़्त के सरबराहों में था अजब ख़ामुशी उस के होंटों पे थी अजब शोर उस की निगाहों में था उसे इस लिए मार डाला गया कि वो ज़ीस्त के ख़ैर-ख़्वाहों में था हमारी नज़र से वो कल गिर गया जो कल तक हमारी निगाहों में था वो क्या देता 'अख़्तर' किसी को पनाह जो ख़ुद उम्र भर बे-पनाहों में था