जहान-ए-जुब्बा-ओ-दस्तार की हिमायत क्या यज़ीद-ए-वक़्त है क्या और उस की बै'अत क्या मुनाफ़िक़ाना रविश आम होती जाती है नक़ाब-पोशी-ए-अहबाब की शिकायत क्या किसी भी शख़्स को अब हर्फ़-ए-हक़ का पास नहीं पनप रहा है यहाँ पर दरोग़-ए-हिकमत क्या मुजाविरान-ए-जहालत के बाला-ख़ानों में सुख़न-तराज़ि-ए-इल्म-ओ-अदब की क़ीमत क्या मज़ा तो जब है कि रंग-ए-सुख़न हो वज्ह-ए-नुमूद जो इश्तिहार की मुहताज हो वो शोहरत क्या मिरे रफ़ीक़ फ़रोग़-ए-जुनूँ के आलम में है चाक चाक गरेबाँ तो इस पे हैरत क्या जो मिल रहा है तुम्हें ग़ैर की इनायत से यही है साँस तो इस साँस की है क़ीमत क्या ज़बाँ भी एक ज़मीं भी है एक रंग भी एक तो फिर मियाँ मन-ओ-तू की ये अज्नबिय्यत क्या झपट रहे हैं सभी सीम-ओ-ज़र के लुक़्मों पर हवस-गिरी है फ़क़त मंसब-ए-वज़ारत क्या सियाह दाग़ हैं ये रौशनी के चेहरे पर मुरीद-ए-जेहल है क्या पेशा-ए-तरीक़त क्या अज़ल से 'बख़्श' रह-ए-पुर-ख़तर से गुज़रे हैं जफ़ा-शनासि-ए-अहबाब की शिकायत क्या