जहान-ए-रंग-ओ-बू पर छा रहा है हर इक पर्दे से वो जल्वा-नुमा है बशर ठोकर पे ठोकर खा रहा है सज़ा अपने किए की पा रहा है तमन्ना और फिर उन की तमन्ना ये इरफ़ान-ए-ख़ुदी की इंतिहा है बुतों को देख कर आता है तू याद बुतों के हुस्न में जल्वा तिरा है कहीं तू है कहीं तस्वीर तेरी न का'बा है न कोई बुत-कदा है तुम्हारी याद कर लेता हूँ ताज़ा बुतों को कौन काफ़िर पूजता है नहीं चारा किसी के पास इस का मोहब्बत एक दर्द-ए-ला-दवा है शराब-ए-ज़ीस्त पीता जा रहा हूँ सुरूर-ए-होश बढ़ता जा रहा है जिगर में चुभ रही है नोक-ए-मिज़्गाँ बला का दर्द 'फ़ारिग़' हो रहा है