हर्फ़ से तासीर लफ़्ज़ों से मअ'नी ले गया जाते जाते वो मिरी जादू-बयानी ले गया उस से थीं मंसूब जो यादें सुहानी ले गया छीन कर मुझ से सभी अपनी निशानी ले गया शाह-राह-ए-ज़ीस्त पर मुझ को अकेला छोड़ कर जाने वाला मुझ से लुत्फ़-ए-ज़िंदगानी ले गया मेज़ पर नन्हा सा इक काग़ज़ का टुकड़ा छोड़ कर ज़िंदगी की हर ख़ुशी वो ना-गहानी ले गया हम उधर मसरूफ़ थे और वक़्त का सैल-ए-रवाँ क्या पता कब छीन कर हम से जवानी ले गया मुद्दतों से साकित-ओ-जामिद है ये नायाब दिल कौन इस दरिया की मौजों की रवानी ले गया