ज़हर के घूँट पी रहे हैं हम तेरी नज़रों में जी रहे हैं हम ख़ूब है सोज़न-ए-मिज़ा भी तिरी दिल के ज़ख़्मों को सी रहे हैं हम घर तो घर सर दिए हैं ग़ुर्बत में दश्त में भी सख़ी रहे हैं हम शोख़ हों मय-कदे हों महफ़िलें हों हर जगह मुत्तक़ी रहे हैं हम तेरे कूचे की गुफ़्तुगू है फ़ुज़ूल तेरे तो दिल में भी रहे हैं हम पेश-ए-ख़िदमत हैं कौसर-ओ-तसनीम कुश्ता-ए-तिश्नगी रहे हैं हम दे दिए रोटियों समेत शुतुर मुफ़्लिसी में ग़नी रहे हैं हम नफ़्स के शर से 'हिल्म' बच के रहो मुद्दतों से दुखी रहे हैं हम