ज़हर को मय न कहूँ मय को गवारा न कहूँ रौशनी माँग के मैं ख़ुद को सितारा न कहूँ अपनी पलकों पे लिए फिरता हूँ चाहत के सराब दिल के सहरा को समुंदर का किनारा न कहूँ हिज्र के फूल में वो चेहरा-ए-ज़र्रीं देखूँ वस्ल के ख़्वाब को मिलने का इशारा न कहूँ मरते मरते भी ये तहरीर अमानत मेरी मौत के ब'अद भी जीने को ख़सारा न कहूँ अपनी तकमील के हर नक़्श में देखूँ उस को अरसा-ए-दहर को हसरत का नज़ारा न कहूँ हश्र से पहले मिरे हश्र की तस्वीर न बन हरफ़-ए-आख़िर को किसी तौर दोबारा न कहूँ ज़िंदगी जिस की मिरे दम से इबारत हो 'ज़फ़र' क्यूँ कहे कोई उसे जान से प्यारा न कहूँ