ज़ाहिद असीर-ए-गेसू-ए-जानाँ न हो सका जो मुतमइन हुआ वो परेशाँ न हो सका क़ैद-ए-ख़ुदी में आदमी इंसाँ न हो सका ज़र्रा सिमट गया तो बयाबाँ न हो सका दामन तक आ के चाक गरेबाँ भी रह गया अंदाज़ा-ए-बहार-ए-गुलिस्ताँ न हो सका ख़ून-ए-दिल-ओ-जिगर न तबस्सुम बना न अश्क मज़मून-ए-आरज़ू कोई उनवाँ न हो सका मरना तो एक बार हुआ सहल भी मगर जीना किसी तरह कभी आसाँ न हो सका बढ़ता ही जा रहा है ज़माने का इज़्तिराब दुनिया के दर्द का कोई दरमाँ न हो सका मुस्तक़बिल-ए-हयात के इरफ़ाँ से मैं 'नुशूर' इस दौर-ए-पुर-फ़रेब का इंसाँ न हो सका