ज़ाहिद दर-ए-मस्जिद पे ख़राबात की तू ने जी भी यूँही चाहे था करामात की तू ने जाने दे बस अब यार कि ये भी नहीं कुछ कम आमाल की दिल के जो मुकाफ़ात की तू ने ईधर तो मैं नालाँ हूँ उधर ग़ैर न जाने अब किस से मिरी जान मुलाक़ात की तू ने अल्लाह-री मोहब्बत तिरी तालीम कि जो बात दुश्वार थी मुझ पर सो मुसावात की तू ने 'क़ाएम' रह-ए-पुर-ख़ौफ़ है और दूर है मंज़िल कब पहुँचेगा ज़ालिम जो यहीं रात की तू ने