ज़हमत कभी कभी तो मशक़्क़त कभी कभी लगती है ज़िंदगी भी मुसीबत कभी कभी पहलू में जागती है मोहब्बत कभी कभी आती है हाथ दर्द की दौलत कभी कभी अब तक तिरे बग़ैर मैं ज़िंदा हूँ किस तरह होती है अपने आप पर हैरत कभी कभी इक पल का जो विसाल था उन माह-ओ-साल में देता है हिज्र में भी रिफ़ाक़त कभी कभी छेड़े वफ़ा का गीत कोई नग़्मा-साज़ जब ख़ुद से भी होने लगती है वहशत कभी कभी इक रात हिज्र की है मुसलसल हमारे साथ तुम पर गुज़रती होगी क़यामत कभी कभी सुलगी है तेरी याद में ये रूह रात दिन देने लगी है लौ ये रिफ़ाक़त कभी कभी दुनिया के वास्ते जो बहुत बे-शुऊर था उस से मिली है इश्क़ को वक़अत कभी कभी मुझ को तिरी जफ़ा का तो शिकवा नहीं मगर आती है यूँ ही लब पे शिकायत कभी कभी मैं दर्द से नजात की तालिब नहीं मगर 'शाहीन' कम हो थोड़ी सी शिद्दत कभी कभी