ज़िद्दी अड़ियल है ख़ुराफ़ात पे रुक जाती है सोच उस शख़्स के हालात पे रुक जाती है इश्क़ मोहलत ही नहीं देता जहाँ-दारी का हर तमन्ना तो उसी ज़ात पे रुक जाती है अश्क थम जाते हैं बदले हुए मौसम के सबब और बारिश कभी जज़्बात पे रुक जाती है भाई कुछ ज़ब्त सिखा दूसरे घर जाएगी तेरी बेटी तो सवालात पे रुक जाती है ज़िंदगी को कभी दे देती हूँ चौखट पे जगह ये भिकारन इसी ख़ैरात पे रुक जाती है मेरे अशआर का मेआ'र ही कम है शायद इस लिए दाद भी हज़रात पे रुक जाती