ज़िक्र है दर्द का इक शहर बसा है मुझ से अब ये जाना कि मेरा दर्द बड़ा है मुझ से बहुत एहसाँ है जो कोई भी मिला है मुझ से शहर का शहर मगर जैसे ख़फ़ा है मुझ से बार-हा ख़ुद पे मैं हैरान बहुत होता हूँ कोई है मुझ में जो बिल्कुल ही जुदा है मुझ से कट से जाते हैं सभी कोई नहीं कुछ कहता कौन सा जाने क़ुसूर ऐसा हुआ है मुझ से मुँह पे कहने तो लगे हैं मिरी बस्ती वाले बात करने का चलन कुछ तो चला है मुझ से बात करते हुए ख़ुद से जो गुज़रता है कोई मुझ को लगता है ये कुछ उस ने कहा है मुझ से अभी लौट आएगा मिरी ही तरह कुढ़ता सा मेरे ही घर का पता पूछ गया है मुझ से मैं ने ये सब से कहा तुम तो कहीं के न रहे और देखो कि यही सब ने कहा है मुझ से है कोई मुझ सा कहूँ क्या न मैं जानूँ न कुछ और और मेरा ही पता पूछ रहा है मुझ से 'तल्ख़' जाता ही नहीं दुख के नगर कहता है है वहाँ जो भी वो मिल कर ही गया है मुझ से