ज़ीनत हूँ अँगूठी की न लॉकेट में जुड़ा हूँ मैं एक नगीना हूँ पे मिट्टी में पड़ा हूँ क्यूँ ज़ात के गुम्बद में हर इक शख़्स हुआ क़ैद कब से इन्हीं सोचों के दोराहे पे खड़ा हूँ तुम साथ मिरा आ के जहाँ छोड़ गए थे मैं आज भी तन्हा उसी संगम पे खड़ा हूँ मौक़िफ़ से मैं हट जाऊँ ये मुमकिन नहीं हरगिज़ पत्थर की तरह धरती के सीने पे गड़ा हूँ बरसाएँ 'ज़ुहैर' अहल-ए-जहाँ संग तो क्या है मैं काँच का प्याला हूँ न मिट्टी का घड़ा हूँ