ज़िंदाँ में हूँ मैं शहर-ए-निगाराँ से क्या मुझे इस गुल्सिताँ की बाद-ए-बहाराँ से किया मुझे वो काम अपना कर ही गया एहतियात से यूँ देखते हो दीदा-ए-हैराँ से क्या मुझे वीरानियाँ हैं गोर-ए-ग़रीबाँ सी हर तरफ़ लेना है आज शहर-ए-दरख़्शाँ से क्या मुझे छूने लगे हैं हाथ मिरे मेहर-ओ-माह को महफ़िल की आब-ओ-ताब-ए-चराग़ाँ से क्या मुझे हाथों को ज़ख़्म क़ल्ब को मायूसियाँ मिलीं इस के सिवा मिला है गुलिस्ताँ से क्या मुझे 'मोहसिन' शब-ए-सियाह का मारा हुआ हूँ मैं अब वास्ता हो शम-ए-शबिस्ताँ से क्या मुझे