ज़िंदगी अब इस क़दर सफ़्फ़ाक हो जाएगी क्या भूक ही मज़दूर की ख़ूराक हो जाएगी क्या मेरे क़ातिल से कोई ऐ काश इतना पूछ ले ये ज़मीं मेरे लहू से पाक हो जाएगी क्या हर तरफ़ उर्यां-तनी के जश्न होंगे रोज़ ओ शब इस क़दर तहज़ीब-ए-नौ बेबाक हो जाएगी क्या बढ़ गया साया अगर क़द से तो बढ़ने दीजिए ख़ाक उड़ कर हमसर-ए-अफ़्लाक हो जाएगी क्या क़ैद-ए-हस्ती से ब-मुश्किल हो सका था मैं रिहा मेरी मिट्टी कासा-गर का चाक हो जाएगी क्या सारी दुनिया ढल रही है मग़रिबी तहज़ीब में बे-हयाई अब मिरी पोशाक हो जाएगी क्या वाक़ई दरिया-ए-ग़म के तेज़ धारों में 'रज़ा' ज़िंदगी मेरी ख़स-ओ-ख़ाशाक हो जाएगी क्या