ज़िंदगी धूप में बसर की है बात लम्बी थी मुख़्तसर की है आ ही जाएगा अपने मतलब पे बात पहले इधर उधर की है साँप देखे हैं आस्तीनों में कैसी मंज़िल ये आज सर की है रंज को मुझ पे जो तसर्रुफ़ है ऐसा लगता है बात घर की है दरमियाँ कोई रास्ता ही नहीं बात इक दूसरे के सर की है एक तस्वीर की तरह चुप था और बात किस क़दर की है ज़िंदगी अब भी है 'सबा' दिलकश जो कमी है तिरी नज़र की है