ज़िंदगी इक दर्द-ओ-ग़म का साज़ है मौत जिस की आख़िरी आवाज़ है वाँ तो आईना है मश्क़-ए-नाज़ है मुंतशिर याँ ज़िंदगी का साज़ है दिल हमारा दर्द से ख़ाली न कर ये हमारी ज़िंदगी का राज़ है आज फिर बरसेंगे नग़्मे बज़्म में आज फिर हाथों पे उस के साज़ है हर निशाना दिल पे लगता है मिरे कौन कोहना-मश्क़ तीर-अंदाज़ है सुन रहा हूँ दिल से नग़्मों की सदा दोस्त से मिलती हुई आवाज़ है नग़्मा-बाज़ इक ज़िंदगी का साज़ है दहर का हर ज़र्रा हम-आवाज़ है जल रहा है जिस्म का ख़ाकी क़फ़स ताइर-ए-जाँ माइल-ए-परवाज़ है ख़त्म कर 'आली' फ़साना ख़त्म कर सुनने वाला महव-ए-ख़्वाब-ए-नाज़ है