ज़िंदगी इश्क़-ओ-मोहब्बत से जवाँ होती है वर्ना बे-कैफ़ सी बे-ताब-ओ-तवाँ होती है इश्क़ की लौ से जो रौशन रग-ए-जाँ होती है शम्अ बन जाती है बे-इश्क़ धुआँ होती है कौन हम जैसों को इस मय का पता देता है पहले कुछ लोग बताते थे कि हाँ होती है हाव-हू शोर जो हम सुनते हैं मय-ख़ाने में मय-गुसारों के लिए बांग-ए-अज़ाँ होती है इक न इक नासेह-ए-मुश्फ़िक़ भी टपक पड़ता है मय-गुसारी की कोई बात जहाँ होती है ऐ 'हकीम' आओ वो मय-ख़ाना खुला रहता है अस्ल मय साक़ी-ए-कौसर के वहाँ होती है