ज़िंदगी ज़ौक़-ए-परस्तिश की सज़ा माँगे है काँच के का'बे में पत्थर का ख़ुदा माँगे है आज फिर अपने पयम्बर की पनाहों के लिए अहद-ए-आशोब कोई ग़ार-ए-हिरा माँगे है ज़िंदगी आज है इंसान की तो मिस्ल-ए-क़फ़स उम्र-ए-पैहम के लिए अपनी चिता माँगे है हुस्न-कारी के लिए आज ये दिलदार-ए-सुख़न रंग-ए-ख़ूँ और ज़रा बू-ए-हिना माँगे है मिन्नत-ए-गोश नहीं क़ाफ़िला-ए-वक़्त-ए-'सहर' लम्हा लम्हा वो मगर बाँग-ए-दरा माँगे है