ज़िंदगी जब क़ज़ा से मिलती है हाए कितनी वफ़ा से मिलती है मैं भी चुप-चाप देखता हूँ बस मेरी आदत ख़ुदा से मिलती है मेरे लब पर रखी ख़मोशी भी शोर की इंतिहा से मिलती है वो मिरी राह में न आ जाए वो मिरे रहनुमा से मिलती है बैठ जाती है पीठ दे के मुझे ज़िंदगी इस अदा से मिलती है शहर पर आफ़तें न पड़ जाएँ आग जा कर हवा से मिलती है