ज़िंदगी जिस पर हँसे ऐसी कोई ख़्वाहिश न की घाव सीने में सजाए घर की आराइश न की नुक्ता-चीनी पर मिरी तुम इतने बरगश्ता न हो कह दिया जो कुछ भी दिल में था मगर साज़िश न की एक से हालात आए हैं नज़र हर दौर में रुक गए मेरे क़दम या वक़्त ने गर्दिश न की झुक गया क़दमों पे तेरे फिर भी सर ऊँचा रहा आँख पत्थर हो गई जल्वों की फ़रमाइश न की लाख नज़रों को उछाला तू न आया बाम पर साए सर पटख़ा किए दीवार ने जुम्बिश न की मैं ने जिन आँखों को सीने में उतारा फिर गईं ख़ुद को अपनाने की इस डर से कभी कोशिश न की रह के महदूद-ए-वसाइल की 'मुज़फ़्फ़र' ने बसर पाँव फैला कर कभी चादर की पैमाइश न की