ज़िंदगी का दर्द ले कर इंक़लाब आया तो क्या एक दोशीज़ा पे ग़ुर्बत में शबाब आया तो क्या तिश्ना-ए-अनवार है अब तक उरूस-ए-ज़िंदगी बादलों की पालकी में आफ़्ताब आया तो क्या अब तो आँखों पर ग़म-ए-हस्ती के पर्दे पड़ गए अब कोई हुस्न-ए-मुजस्सम बे-नक़ाब आया तो क्या फिर वही जोहद-ए-मुसलसल फिर वही फ़िक्र-ए-मआश मंज़िल-ए-जानाँ से कोई कामयाब आया तो क्या इक तजल्ली से मुनव्वर कीजिए क़स्र-ए-हयात हर तजल्ली पर दिल-ए-ख़ाना-ख़राब आया तो क्या बात जब है ग़म के मारों को जिला दे ऐ 'शकील' तू ये ज़िंदा मय्यतें मिट्टी में दाब आया तो क्या