ज़िंदगी का सफ़र कठन है बहुत चल रही हूँ मगर थकन है बहुत यूँ तो कहने को है शरीक-ए-सफ़र फिर भी लेकिन अकेला-पन है बहुत गो ख़ुलूस-ओ-वफ़ा का है पैकर उस के लहजे में पर चुभन है बहुत याद ओढ़ी हुई है उस की यूँ लाश को जैसे इक कफ़न है बहुत ज़िंदगी है अजीब उलझन में जी रही हूँ मगर घुटन है बहुत मैं मुकम्मल कभी न हो पाई ज़िंदगी में अधूरापन है बहुत ख़ाक हूँ मैं ज़मीं है मेरा नसीब फिर भी उड़ने की क्यूँ लगन है बहुत ज़िंदगी किस की याद में 'रूबी' मुद्दतों से तिरी मगन है बहुत