ज़िंदगी की हँसी उड़ाती हुई ख़्वाहिश-ए-मर्ग सर उठाती हुई खो गई रेत के समुंदर में इक नदी रास्ता बनाती हुई मुझ को अक्सर उदास करती है एक तस्वीर मुस्कुराती हुई आ गई ख़ामुशी के नर्ग़े में ज़िंदगी मुझ को गुनगुनाती हुई मैं इसे भी उदास कर दूँगा सुब्ह आई है खिलखिलाती हुई हर अँधेरा तमाम होता हुआ जोत में जोत अब समाती हुई