ज़िंदगी को ना-मुरादी से कोई शिकवा नहीं अब अगर पत्थर से टकराऊँ तो सर फटता नहीं पी रही है क़तरा क़तरा मेरे ख़्वाबों का लहू मैं हूँ दुनिया के लिए मेरे लिए दुनिया नहीं मिट चुके हैं दिल से यूँ हालात के धुँदले नुक़ूश जिस तरह गुज़रा हुआ लम्हा कभी आता नहीं भूक खेतों में खड़ी है जेब में महँगाई-बंद शहर और बाज़ार में गल्ला कहीं मिलता नहीं अपने पहलू में समेटे हो ग़म-ए-हस्ती का नूर ऐसा कोई फ़ल्सफ़ा इंसान को मिलता नहीं कोई पैग़ाम-ए-तमन्ना कोई पैग़ाम-ए-अमल सिर्फ़ कह देने से तो दुनिया में कुछ होता नहीं कोई रोए या हँसे 'पर्वाज़' मुझ को ग़म नहीं मैं तो ज़िंदा हूँ मिरा एहसास-ए-दिल ज़िंदा नहीं