ज़िंदगी कुछ सोज़ है कुछ साज़ है दूर तक बिखरी हुई आवाज़ है ख़ामुशी उस की है मिस्ल-ए-गुफ़्तुगू हर नज़र जज़्बात की ग़म्माज़ है किस तरह ज़िंदा हूँ तुझ को देख कर ज़िंदगी मुझ पर तबस्सुम-साज़ है जाँ-फ़ज़ा नग़्मात का ख़ालिक़ है ये दिल अगरचे इक शिकस्ता साज़ है इस तरह क़ाएम है रक़्स-ए-ज़िंदगी साज़ उस का है मिरी आवाज़ है क्या बताऊँ आज के इस दौर में आदमी कितना ज़माना-साज़ है इस लिए रखता हूँ मैं उस को अज़ीज़ हक़-परस्ती रूह की आवाज़ है बाख़्तन है पत्थरों की सरज़मीं फिर भी मुझ को इस पे कितना नाज़ है मंज़िल-ए-मक़्सूद तक पहुँचेगी 'अर्श' रुक न पाएगी मिरी आवाज़ है