ज़िंदगी तो क़ैद है और पर्दा-ए-महफ़िल में है आरज़ू हुस्न-ए-ज़मीं की गोशा-ए-ग़ाफ़िल में है ढूँढता है तू जिसे वो जुस्तुजू मेरी भी है मक़्सद-ए-अहल-ए-नज़र तो एक ही मंज़िल में है बंदिश-ए-कौन-ओ-मकाँ परवाज़ में हाइल नहीं हासिल-ए-जहद-ओ-अमल तो जज़्बा-ए-कामिल में है ज़ुल्म की तारीकियों को जुम्बिश-ए-लब सैल-ए-नूर बोल कि है वक़्त तेरा जो भी तेरे दिल में है जाँ-फ़िशानी ओस की और मिट्टी की तलब क्या बुझेगी प्यास लेकिन कुछ नमी तो दिल में है