ज़िंदगी ये तो नहीं तुझ को सँवारा ही न हो कुछ न कुछ हम ने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो दिल को छू जाती है यूँ रात की आवाज़ कभी चौंक उठता हूँ कहीं तू ने पुकारा ही न हो कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर सोचता हूँ तिरे आँचल का किनारा ही न हो ज़िंदगी एक ख़लिश दे के न रह जा मुझ को दर्द वो दे जो किसी तरह गवारा ही न हो शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो