जैसे भी जिस तरह भी बसर कर रहे हैं लोग दिन पूरे ज़िंदगी के मगर कर रहे हैं लोग कुछ भी नहीं निगाह जिधर कर रहे हैं लोग रुस्वा फ़ुज़ूल ज़ौक़-ए-नज़र कर रहे हैं लोग तारों को नक़्श—ए-पा-ए-बशर कर रहे हैं लोग क्या मा'रका हयात का सर कर रहे हैं लोग शैतानियत उरूज पे है बात साफ़ है इंसानियत का ख़ून अगर कर रहे हैं लोग महलों ही में बसर नहीं होती ये ज़िंदगी फ़ुटपाथ पर भी अपनी बसर कर रहे हैं लोग एक रब के दर पे सज्दे की फ़ुर्सत नहीं 'जमील' सज्दे हज़ारों दर पे मगर कर रहे हैं लोग