जैसे हम-बज़्म हैं फिर यार-ए-तरह-दार से हम रात मिलते रहे अपने दर-ओ-दीवार से हम सरख़ुशी में यूँही दिल-शाद ओ ग़ज़ल-ख़्वाँ गुज़रे कू-ए-क़ातिल से कभी कूचा-ए-दिलदार से हम कभी मंज़िल कभी रस्ते ने हमें साथ दिया हर क़दम उलझे रहे क़ाफ़िला-सालार से हम हम से बे-बहरा हुई अब जरस-ए-गुल की सदा वर्ना वाक़िफ़ थे हर इक रंग की झंकार से हम 'फ़ैज़' जब चाहा जो कुछ चाहा सदा माँग लिया हाथ फैला के दिल-ए-बे-ज़र-ओ-दीनार से हम