जैसे ख़ुशबू को सलीक़े से सबा ले जाए कोई ऐसे ही मुझे मुझ से छुड़ा ले जाए मरहला-वार बिखरती ही गई हूँ ख़ुद में अब जिधर चाहे हवा मुझ को उड़ा ले जाए जाज़बिय्यत है बड़ी रौनक़-ए-दुनिया तुझ में इक ग़ज़ाल आए मुझे सब से बचा ले जाए हाए वो गर्मी-ए-बाज़ार-ए-तमन्ना कि मुझे हर तलब ख़्वाब के नाके पे बिठा ले जाए अब वो चेहरा न ख़द्द-ओ-ख़ाल हैं बाक़ी मेरे कोई तस्वीर से सब रंग चुरा ले जाए रोज़ आता है मिरी ख़ल्वत जाँ में कोई याद की भीड़ में चुपके से उठा ले जाए हुस्न मरहून-ए-तमाशा-ए-तमन्ना उस का जो कि हाथों से मिरे रंग-ए-हिना ले जाए