ज़ीस्त बे-वादा-ए-अनवार-ए-सहर है कि जो थी ज़ुल्मत-ए-बख़्त ब-हर-रंग-ओ-नज़र है कि जो थी इश्क़ बर्बाद-कुन-ए-राहत-ए-दिल है कि जो था शोख़ी-ए-दोस्त ब-अंदाज़-ए-दिगर है कि जो थी आज भी कोई नहीं पूछता अहल-ए-दिल को आज भी ज़िल्लत-ए-अर्बाब-ए-नज़र है कि जो थी ख़ुद-परस्ती का रिवाज आज भी है आम कि था रास्ती आज भी मोहताज-ए-असर है कि जो थी आज भी जज़्बा-ए-इख़्लास परेशाँ है कि था आज भी दीदा-वरी ख़ाक-बसर है कि जो थी आज भी इल्म-ओ-हुनर की नहीं कोई वक़अत अब भी ना-क़द्री-ए-असहाब-ए-हुनर है कि जो थी आज भी मेहर-ओ-वफ़ा की नहीं क़ीमत कोई आज भी मंज़िलत-ए-कीसा-ए-ज़र है कि जो थी कामरानी पे है नाज़ाँ हवस-ए-हेच मदार आशिक़ी आज भी बा-दीदा-ए-तर है कि जो थी रूह-ए-इख़्लास तो दर-बंद है बे-पुर्सिश-ए-हाल मिदहत-ए-हुस्न सर-ए-राहगुज़र है कि जो थी साफ़-गोई को समझते हैं यहाँ ऐब अब भी ज़ेहनियत आज भी आलूदा-ए-शर है कि जो थी अस्प-ए-ताज़ी को मयस्सर नहीं चारा 'शो'ला' और तन-ज़ेबी-ओ-आराइश-ए-ख़र है कि जो थी