ज़ीस्त होनी तअज्जुबात है अब मर ही जाना बस एक बात है अब दौर में तेरे है वो कुछ अंधेर नहीं मालूम दिन है रात है अब दिल है ज़िंदा न जी ही जीता है ज़िंदगी बद-तर-अज़-ममात है अब इतने बे-दीद बे-शुनीद हुए न तवज्जोह न इल्तिफ़ात है अब हिज्र कैसा विसाल हो बिल-फ़र्ज़ कुछ ही सूरत हो मुश्किलात है अब जी ही लेना ब-लुत्फ़ है मंज़ूर इस क़दर जो तफ़ज़्जुलात है अब जीते जी तो रहा विसाल मुहाल मर चुके पर तवक़्क़ुआत है अब कुछ न पूछो 'असर' की बेचैनी न सुकूनत है ने सबात है अब