ज़ीस्त का इक गुनाह कर सके न हम साँस के वास्ते भी मर सके न हम जाने किस वहम ने क़दम पकड़ लिए उस की धुँद से गुज़र सके न हम शहर की वो गली सुकूत पा गई चार छे दिन से जो गुज़र सके न हम गुंजलक ख़्वाब का मआल देखते नींद के ग़ार में उतर सके न हम उस तरफ़ भी कुशादा हाथ थे 'ख़ुमार' दश्त में जिस तरफ़ बिखर सके न हम