ज़ीस्त की यूँ तो शाम तक पहुँचे इश्क़ में पर सलाम तक पहुँचे गुफ़्तुगू जब हुई निगाहों में वस्ल के हम पयाम तक पहुँचे रोज़ उस की गली में ठहरें हम क्या पता कब वो बाम तक पहुँचे आख़िरश वो हुए पशेमाँ ही लोग जो इंतिक़ाम तक पहुँचे क्यों न मिल बैठ कर सुल्ह कर लें मसअला क्यों निज़ाम तक पहुँचे राज़-ए-दिल दोस्त से भी मत कहना क्या पता ये तमाम तक पहुँचे दौर जब इंतिख़ाब का आया हुक्मराँ तब अवाम तक पहुँचे दर्द कुछ और दे ज़माना तो शाइ'री इक मक़ाम तक पहुँचे