जाएज़ है उस का क़त्ल हमारे हिसाब से जिस ने मोहब्बतों को निकाला निसाब से तन्क़ीद कर रहे हैं किताब-ए-हयात पर आगे न बढ़ सके जो कभी इंतिसाब से मैं साहब-ए-ख़बर भी नज़र भी जुनूँ भी था जब तक रहा था मेरा तअ'ल्लुक़ किताब से उस वक़्त एक सज्दा बड़े काम आ गया मैं जब गुज़र रहा था अना के अज़ाब से इक लम्हे का फ़िराक़ हवाएँ न सह सकीं दरिया कि शर्मसार रहेगा हबाब से मुझ से बड़े बड़े थे गुनहगार उस जगह बे-कार डर रहा था मैं यौम-ए-हिसाब से काँटों के ख़ौफ़ से भी लरज़ते हो तुम 'मुनीर' और घर भी चाहते हो सजाना गुलाब से