जज़्बा-ए-शौक़ का इज़हार कहाँ होता है याँ हक़ीक़त पे भी ख़्वाबों का गुमाँ होता है अहद-ए-तिफ़्ली में जिसे ज़ीस्त का हासिल जाना वक़्त का अब उन्ही बातों में ज़ियाँ होता है तुम ही आओगे मिरी रूह में ख़ुशबू बन कर ये तसव्वुर भी अजब राहत-ए-जाँ होता है रात पलकों पे सजाता हूँ वफ़ाओं के चराग़ दिन निकलने पे ये अंदाज़ कहाँ होता है इश्क़-ए-शोरीदा को अश्कों से तमाशा न बना आग पर पानी के पड़ने से धुआँ होता है मेरा महबूब है क्या पूछने वाले अब पूछ हाँ ये 'मंज़र' भी शब-ओ-रोज़ वहाँ होता है