ज़ख़्म खा कर भी मुस्कुराना है दोस्त दुश्मन को आज़माना है वो कहाँ और इल्तिफ़ात कहाँ दिल दुखाने का इक बहाना है जानता हूँ हक़ीक़त-ए-हस्ती जान कर भी फ़रेब खाना है ढूँढती फिर रही है बर्क़-ए-सितम चंद तिनकों का आशियाना है फ़िक्र-ए-दुनिया में घुल रहे हैं लोग चार दिन का ये आब-ओ-दाना है कुछ नहीं सैर-ए-मै-कदा से ग़रज़ ज़ीस्त करने का इक बहाना है ग़म से 'अहमद' नजात क्यों कर हो इस से रिश्ता बहुत पुराना है