ज़ख़्म खाना ही जब मुक़द्दर हो फिर कोई फूल हो कि पत्थर हो मैं हूँ ख़्वाब-ए-गिराँ के नर्ग़े में रात गुज़रे तो मा'रका सर हो फिर ग़नीमों से बे-ख़बर है सिपाह फिर अक़ब से नुमूद लश्कर हो क्या अजब है कि ख़ुद ही मारा जाऊँ और इल्ज़ाम भी मिरे सर हो हैं ज़मीं पर जो गर्द-बाद से हम ये भी शायद फ़लक का चक्कर हो उस को ताबीर हम करें किस से वो जो हद्द-ए-बयाँ से बाहर हो देखना ही जो शर्त ठहरी है फिर तो आँखों में कोई मंज़र हो