ज़ख़्म पर ज़ख़्म मुहिब्बान-ए-सितम देते गए तह-ब-तह जम गए ग़म फिर भी वो ग़म देते गए हम उन्हें कश्फ़ की सूरत नज़र आए हर वक़्त वो मगर हम को फ़क़त ख़्वाब-ए-अदम देते गए गुल थे मक़्सूद हमारा था समर हो जाना तोड़ कर शाख़ से क्यों रंज-ओ-अलम देते गए अहल-ए-बातिल की ये साज़िश थी कि मफ़्लूज हो फ़िक्र नाम ले ले के हक़ीक़त का भरम देते गए अहल-ए-क़ुव्वत के इशारों पे क़लम चलता गया वो एवज़ में उसे इक ख़ास रक़म देते गए लगता है रुक सी गई वलियों की अफ़्ज़ाइश-ए-नस्ल और शैतानों को शैतान जनम देते गए ठहरे महबूब उन्हें ठगने का हक़ था 'जावेद' हुक्म देते रहे जिस चीज़ का हम देते गए