ज़ख़्म शिद्दत में मुस्कुरा रहे थे हज़रत-ए-मीर याद आ रहे थे ये वो पागल है जिस का ज़िक्र किया वो तआ'रुफ़ मिरा करा रहे थे किस क़दर शोख़ उन का लहजा था हम तो बस देखते ही जा रहे थे क्या कोई ज़ख़्म-ए-दिल पे खा बैठे तुम जो ग़ालिब को गुनगुना रहे थे हम तो दहलीज़ से ही लौट आए वो भी महफ़िल से उठ के जा रहे थे कर के तन्क़ीद मेरे लहजे पे कम-सुख़न मर्तबा बढ़ा रहे थे