ज़ख़्म-ए-दिल और हरा ख़ून-ए-तमन्ना से हुआ तिश्नगी का मिरी आग़ाज़ ही दरिया से हुआ चुभ गई हल्क़ में काँटों की तरह प्यास मिरी दश्त सैराब मिरे आबला-ए-पा से हुआ दिल-ए-ज़िंदा को चुना दर्द की दीवारों में रोक लेती मुझे इतना भी न दुनिया से हुआ सर में सौदा था मगर पाँव में ज़ंजीर न थी ख़ाक उड़ाता रहा मंसूब न सहरा से हुआ फेर दीं किस ने सलाख़ें सी मिरी आँखों में कौन अंगुश्त-नुमा ताक़-ए-तमाशा से हुआ दूर जा कर मिरी आवाज़ सुनी दुनिया ने फ़न उजागर मिरा आईना-ए-फ़र्दा से हुआ बू मिज़ाजों से गई रंग उड़े चेहरों के ख़ुश यहाँ कौन मिरे दीदा-ए-बीना से हुआ अजनबी सा नज़र आया हूँ 'मुज़फ़्फ़र' ख़ुद को बे-तकल्लुफ़ जो मैं इस अहद-ए-शनासा से हुआ