ज़ख़्मी परों में डाल कर उस के नगर की ख़ाक हैकल समुंदरों से उठा ली सफ़र की ख़ाक ख़्वाबों के जिस्म ढेर ख़राबों में ग़म के थे दिल ने पर इस खंडर से उठा ली नज़र की ख़ाक सर में हवा भरी थी ख़लाओं के बस्त की क़दमों में आ पड़ी है सितारों के ज़र की ख़ाक कब तक मसाफ़तों ही से मिट्टी ख़राब हो इस बार रह में बैठेंगे ले कर हज़र की ख़ाक इन बस्तियों को क़ैस के क़दमों की लौ मिले कूचों में शब के यार जला आए सर की ख़ाक